Wednesday 22 October 2014

नजरिया! किशनगंज के सांप्रदायिक रंग में रंगे हालिया घटनाकर्म में बुद्धजीवी समाज द्वारा गठित संस्थानों का रवैया निराशाजनक

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किशनगंज के हालिया सांप्रदायिक रंग में रंगे घटनाकर्म में बुद्धजीवी समाज द्वारा गठित संस्थानों का रवैया निराशाजनक रहा! खासकर किशनगंज जिले में अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शाखा के मुद्दे को लेके बुद्धजीवी समाज ने कई ग्रुप बनाये, और सोशल मीडिया खासकर फेसबुक (Facebook) पर छाये रहे, वे  किशनगंजवासियों की कठनाई की स्तिथि में नदारद रहे! न तो उनकी भौतिक उपस्तिथि जिले में दिखी और न तो वे फेसबुक पर इस मुद्दे पर सक्रिय दिखे! मैं इस बात से बिलकुल इंकार नहीं करता की मैं भी एक गैरसरकारी संस्थान से जुड़ा हुआ हूँ और दूसरी संस्थानों की तरह  मेरी संस्था का रवैया  भी इस मुद्दे पर पूरी तरह निष्क्रिय रहा! लेकिन मेरे अंदर एक पत्रकार बसा हुआ है और मेरी जितना अनुभव है उससे मैं खुद को एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर अपने संस्थान की भी आलोचना करता हूँ और अपने विचार व्यक्त करता हूँ! अगर कोई व्यक्ति मेरे विचारों से आहत होते हैं तो मैं छमाप्रार्थी हूँ एवं सविनय निवेदन करता हूँ कि मुझे माफ़ कर दें!

Administration
6 अक्टूबर 2014 (सोमवार), जहाँ देश भर में मुस्लिम समुदाय के लोग पवित्र त्यौहार बक़रीद उर्फ़ ईद-ऊल-अज़हा मनाने में व्यस्त था वहीँ बिहार के उत्तर-पूर्व हिस्से में स्तिथ किशनगंज जिले के निवासी भी किसी बड़े हलचल से पूरी तरह बेखबर हर्ष व उल्लास से इस त्यौहार को मनाने रहे थे! लेकिन शाम होते-होते किशनगंज शहर के उत्तरपाली / पश्चिमपाली इलाक़े मे एक खाली मैदान में अंजान लोग द्वारा कुछ आपत्तिजनक वस्तु फेंकने की वजह से तनाव की स्तिथि पैदा हो गयी और हो-हंगामे के बीच किशनगंज-ठाकुरगंज मार्ग को भी जाम कर दिया गया! किशनगंज प्रशासन और सभय-समाज के प्रतिनिधियों ने नाराज़ लोगों को समझा-बुझा कर मामले को शांत करवा दिया! लेकिन गंगी-जमनी तहज़ीब की मिसाल के रूप में मश्हूर किशनगंज और यहाँ के अमन-चैन और शांति को शायद किसी की खासकर सांप्रदायिक मानसिकता के लोगों की नज़र लग चुकी थी! ईद-ऊल-अज़हा के ठीक दूसरे दिन मंगलवार यानी 7 अक्टूबर 2014 की सुबह को किशनगंज शहर के वातावरण में सांप्रदायिकता का दुखदायक नज़ारा दस्तक दे चूका था! अलग-अलग समूहों में 8 से 10 साल के बच्चों से लेकर युवा रैली में शामिल थे और धर्म-विशेष को निशाना बनाके नारे लगा रहे थे और अभद्र गलियां भी दे रहे थे! एक समुदाय विशेष के कुछ लोगों को बुरी तरह पीटा गया, दुकानों को तोड़-फोड़ कर जबरदस्ती बंद करवाया गया, राष्ट्रीय राज्यमार्ग 31 को जाम कर दिया गया, कई मोटरसाइकिलों और एक बोलेरो गाड़ी को जला दिया गया! यह तांडव करीब 7 घंटों तक चला और पुलिस-प्रशासन मूक-दर्शक बनकर दंगाइयों के साथ-साथ पीछे चलते रही जिससे उनका मनोबल बढ़ता रहा! आख़िरकार जब हालत बेकाबू होगये और शहर में ख़ौफ़ का माहौल पूरी तरह हावी हो गया तबमुख्यमंत्री और राज्य के गृहमंत्रालय के अधिकारियों के निर्देश पर डीएम और एसपी ने कारवाई की! आनन-फानन में 48 घंटे के कर्फ्यू की घोषणा की गयी और लोगों को अपने घरों के अंदर जाने का निर्देश दिया गया लेकिन हक़ीक़त में धारा 144 लगाई गयी थी और भीड़ को तितर बितर करने के लिए  कर्फ्यू  शब्द का उपयोग किया गया था! जब डीआईजी से जानकारी ली गयी तो उन्होंने कर्फ्यू से साफ़ मना किया और कहा की धारा 144हीलगाई गयी है! किशनगंज शहर में हर तरफ खौफ का माहौल साफ़ देखा जा सकता था और साथ ही साथ अफवाहों का बाजार भी गर्म था! नेताओं और विभिन्न समुदायों के प्रतिनिधिगण अपने-अपने तरीके से किशनगंज के हालत का जायज़ा ले रहे थे और अपने विचार जिला प्रशासन के समक्ष रख रहे थे! क़रीब एक हफ्ते के बाद किशनगंज में तनाव का माहौल कुछ हद तक समाप्त हो चूका था और जिंदगी पटरी पर वापस आ गयी थी लेकिन इस उथल-पुथल ने भविष्य के लिए कई  प्रश्न खड़े किये हैं और इस छेत्र की आम जनता में कही न कहीं अशंतोष और संदेह का भाव साफ़ देखा जा सकता है!

लेकिन इस मामले के बाद सबसे बड़ा सवालिया निशान इलाक़े के  गैरसरकारी संस्थानों की प्रतिक्रिया और रवैये  पर लगता है! ईमानदारी से एक वाक्य मेअगर  गैरसरकारी संस्थानों के द्वारा उठाये गए कदम का आकलन करें तो यह कहना ग़लत नहीं होगे कि यह संस्थाने पूरी तरह असफल हो गए और इनका प्रदर्शन निराशाजनक रहा! सच तो यह है कि किशनगंज के इतिहास में हुए सांप्रदायिक रंग में रंगे इस हालिया घटना में इस छेत्र में सक्रिय  गैरसरकारी संस्थान काफी अहम भूमिका निभा सकते थे! लेकिन घटना की शुरवात से अंत तक गैरसरकारी संस्थान के प्रतिनिधि नदारद थे, न तो जिला प्रशासन और न चुने हुए राजनितिक नेताओं के पास ही किसी ने गुहार लगायी! जहाँ जिले में अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शाखा के मुद्दे को लेके बुद्धजीवी समाज के युवा और उनके अभिभाकों ने कई ग्रुप बनाये, और सोशल मीडिया खासकर फेसबुक (Facebook) पर छाये रहे वे  किशनगंजवासियों की कठनाई की स्तिथि में नदारद रहे! न तो उनकी भौतिक उपस्तिथि जिले में दिखी और न तो वे फेसबुक पर इस मुद्दे पर सक्रिय दिखे! मैं इस बात से बिलकुल इंकार नहीं करता की मैं भी एक गैरसरकारी संस्थान से जुड़ा हुआ हूँ और दूसरी संस्थानों की तरह  मेरी संस्था का रवैया  भी इस मुद्दे पर पूरी तरह निष्क्रिय रहा! लेकिन मेरे अंदर एक पत्रकार बसा हुआ है और मेरी जितना अनुभव है उससे मैं खुद को एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर अपने संस्थान की भी आलोचना करता हूँ! साथ ही साथ दूसरे संस्थान जिनका मैं नाम लेना उचित नहीं समझता जो की  अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शाखा के मुद्दे पर वर्चस्व की लड़ाई के तौर पर हमेशा मुझसे जुड़े संस्थान की आलोचना करने से नहीं चूकते थे आज परीक्षा की अहम घडी में पूरी तरह निष्क्रिय हैं!

किसी संस्थान या व्यक्ति की ज़िन्दगी या काम-काज के तरीके पर सवाल उठाना उचित नहीं है लेकिन जब मामला आम लोगों खासकर किशनगंज जिले की पहचान और गंगी-जमनी तहज़ीब से जुड़ा हो तो  बुद्धजीवी समाज द्वारा चलाये जा रहे संस्थानों को तमाम मदवेद को भुलाकर एक प्लेटफार्म पर आने की आवश्यकता है! अगर इस समय ये संस्थान कंधे-से-कंधा मिलाकर एक साथ नहीं आएंगे तो सांप्रदायिक सोच और विस्फोटक मानसिकता के लोग पूरा का पूरा लाभ भविष्य में उठा सकते हैं!
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